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प्यार मांगो सब मिल जायेगा……

एक महिला अपने घर से बाहर निकली, तो अपने यहाँ तीन बूढ़े आदमी बैठे देखे. वो उनके पास गयी और बोली ,
” मैं आपको नहीं जानती , लेकिन शायद आप लोगों को भूख लगी होगी? आप घर के अन्दर चलकर कुछ खा लीजिये. “

लेकिन उन तीनों ने यह कहकर मना कर दिया कि हम तीनों एक साथ आपके घर नहीं आ सकते. इसका कारण पूछने पर उनमे से एक बूढ़े ने बताना शुरू किया , ” हममे से एक पैसा, दूसरा सफलता और तीसरा प्यार है. अब आप अपने घरवालों से जाकर चर्चा कर लो कि वे हम तीनों में किसे अपने घर बुलाना चाहेंगे.”

महिला घर के भीतर गयी और परिवार के सदस्यों से चर्चा की. किसी ने पैसा, किसी ने सफलता और किसी ने प्यार को निमंत्रित करने के लिए कहा. आखिर कर तै हुआ कि प्यार को ही घर में बुलाया जाए.

महिला बाहर आई और और प्यार को अन्दर आने के लिए कहा. लेकिन यह क्या, प्यार के साथ साथ सफलता और पैसा भी अन्दर आने लगे.
महिला ने कहा,” मैंने तो सिर्फ प्यार को घर में आने को कहा है, फिर आप तीनों एक साथ क्यों आ रहे हैं ?”

तीनों बूढों ने एक साथ कहा कि अगर तुमने पैसा या सफलता में से किसी एक को बुलाया होता तो बाकी दो बाहर ही रह जाते. मगर तुमने प्यार को बुलाया, इसी लिए जहाँ सबके लिए प्यार होगा, वहां पैसा और सफलता अपने आप ही चले आयेंगे…

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झूठ और सच

एक बार गुरु नानक देव जी ने मरदाने को एक टका
दिया और कहा कि एक पैसे का झूठ ला और एक पैसे
का सच ला| परमार्थ की इतनी ऊँची बात को कोई
कोई ही समझ सकता है| मरदाना जब एक टका लेकर झूठ
और सच खरीदने किसी दुकान पर जाता तो लोग
उसका मजाक उड़ाते, कि क्या झूठ और सच भी दुकानों
पर मिलता है|
अंत में मरदाना एक प्यार वाले के पास पहुंचा, उसको
मरना याद था, क्यूंकि जिसको मरना याद रहता है
उसको सिमरन भी याद रहता है| उस व्यक्ति के पास
जाकर मरदाने ने कहा कि एक पैसे का सच दे दो और एक
पैसे का झूठ दे दो| उस आदमी ने अपनी जेब से एक कागज
निकला, उसके दो हिस्से किये और एक पर लिखा कि
‘मरना सच है’ और दूसरे पर लिखा ‘जीना झूठ है’, और
वो कागज मरदाने को दे दिए| मरदाना वो कागज
लेकर गुरु नानक जी के पास वापिस पहुंचा और नमस्कार
कर के कहा कि गुरु जी ये वो कागज की पर्चियां
मिली हैं| बाबा जी ने पर्चियों को पड़ा कि मरना
सच है, तो कहा कि ये ही दुनिया का सब से बड़ा सच
है| दुनिया में जो कोई भी आया है उसने यहाँ से
जाना है, वो अपने आने से पहले अपना मरना लिखवा
कर आया है| अगर कोई यह कहता है कि मेरे संगी-
साथी दुनिया छोड़ कर जा रहे है, और मुझे भी पता
नहीं कब परमात्मा का बुलावा आ जाना है, तो यह
सच है| जिसको अपना मरना याद रहता है वो दुनिया
में कोई बुरा काम नहीं करता और हर वक्त परमात्मा
को याद करता रहता है, उसका सिमरन करता रहता है|
दूसरी पर्ची पर बाबाजी ने ‘जीना झूठ है’ पढ़ कर कहा
कि अगर कोई आदमी यह कहता है कि उसने हमेशा इस
दुनिया में रहना है तो ये सब से बड़ा झूठ है| इस दुनिया
में कोई भी चीज सथाई नहीं है| जनम होने से पहले ही
सब का मरना तय हो जाता है, इस लिए ये कहना सब
से बड़ा झूठ है कि किसी ने हमेशा जीते रहना है|
इस लिए हमें अपनी मौत को कभी भूलना नहीं चाहिए
और उसे याद करके ही सब कर्म करने चाहिए| प्रभु का
सिमरन करना चाहिए और अच्छे काम करने चाहिए|

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प्रेम – प्यार और नम्रता

भाई नन्द लाल जी और गुरु गोबिंद सिंह जी साहिब जी में बहुत प्रेम था । भाई नन्द लाल जी जब तक गुरु गोबिंद सिंह जी साहिब जी के दर्शन नहीं कर लेते थे, तब तक अपना दिन नहीं शुरू करते थे । एक दिन भाई नन्द लाल जी ने जल्दी कहीं जाना था, लेकिन गुरु साहिब सुबह 4 वजे दरबार में आते थे । उन्होंने सोचा चलो गुरु साहिब जहाँ आराम करते हैं, वहीं चलता हूं… दरवाज़ा खटखटा करके मिल के ही चलता हूँ ।

सुबह 2 वजे गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी अपने ध्यान में बैठे थे, तब नन्द लाल जी ने दरवाजा खटखटाया…..

गुरु साहिब जी ने पूछा कौन है बाहर…?

नन्द लाल जी – मैं हूँ !

फिर पूछा – कौन है बाहर..?

नन्द लाल जी ने कहा…. मैं हूँ ..!

गुरु साहिब ने कहा जहाँ …..जहाँ ”मैं -मैं” होती है वहाँ गुरु का दरवाज़ा नहीं खुलता ।

भाई नन्द लाल जी को महसूस हुआ, कि….. मैंने ये क्या कह दिया…. और फिर दरवाजा खटखटाया ।

तब गुरु साहिब जी ने फिर पूछा कौन है..?

नन्द लाल जी ने कहा…. ”तूँ ही तूँ ” ।

गुरु साहिब ने कहा इस में तो तेरी चतुराई दिख रही है… और जहाँ चतुराई होती है। वहाँ भी गुरु का दरवाज़ा नहीं खुलता ।

ये सुन के नन्द लाल जी रोने लग गये कि इतना ज्ञानी होके भी तुझे इतनी अकल नहीं आयी…… (नन्द लाल जी बहुत ज्ञानी थे, 6 भाषा आती थी , उच्च कोटि के शायर थे ,)

उनका रोना सुन कर….. गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी ने पूछा बाहर कौन रो रहा है… ?

अब नन्द लाल रोते हुए बोले….. क्या कहूं सच्चे पातशाह….. कौन हूँ ..?
‘मैं’…. कहु तो हौमे…..(अहंकार) आता है….. ‘तूँ’…. कहूं तो चालाकी…. आती है। अब तो आप ही बता दो के…. मैं कौन हूँ…?

और दरवाज़ा खुल गया, आवाज़ आयी बस यही नम्रता होनी चाहिए……जहाँ ये नम्रता है , भोलापन है…. वहाँ गुरु घर के दरवाज़े हमॆशा खुले हैं….. और गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी ने भाई नन्द लाल को गले से लगा लिया …..

शिक्षा – सतगुरु सेवक के प्रेम – प्यार और नम्रता को देखते हैं ।

संत कहते हैं ” गुरु नहीं भूखा तेरे धन का, उन पर धन है भक्ति नाम का ”….


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क्रोध ने हमको बांधा हैं या हमने क्रोध को

एक  बार एक व्यक्ति एक महात्मा के पास गया और उसने उस महात्मा से कहा कि हे ! महात्मा मुझे बहुत क्रोध आता हैं | कृपया कोई उपाय बताये | तब महत्मा ने धीरे से मुस्कुरा कर हाथ आगे बढाया और अपने हाथ की मुट्ठी बांधकर कहा – हे भाई ! मेरी यह मुठ्ठी बंद हो गई हैं खुल नहीं रही हैं | तब उस व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा हे महात्मा| आपने ही यह मुठ्ठी बाँधी हैं आप खुद ही इसे खोल सकते हैं |

तब महात्मा ने मुस्कुराकर कहा हे भाई ! जब यह मुठ्ठी मुझे बांधकर नहीं रख सकती तब क्रोध तुम्हे कैसे बाँध सकता हैं मन के जिस कोने में क्रोध को पकड़ रखा हैं उसे वहाँ से जाने दो | मन में उसे बैठाकर नहीं रखोगे तो उससे दूर करने का उपाय भी नहीं पूछना होगा |

बुराई खुद जन्म नहीं लेती | हमारा मन ही उसे जगह देता हैं | जब हम अच्छा बुरा जानते हैं तब उन्हें अपने अन्दर पनपने से भी रोक सकते हैं | जैसे एक शराबी जानता हैं कि शराब पीने से उसका कोई लाभ नहीं | बल्कि भविष्य में उससे उसे तकलीफ ही होगी |तो क्या वह अपने आपको इस बुराई से दूर नहीं कर सकता ?

बुराई को जान कर पाल कर रखना, रखने वाले की गलती होती हैं बुराई की नहीं |

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भगवान से अंतर

भगवान से अंतर

कभी आपने महसूस किया है कि
बस में सफर करते समय अगर,
हम पीछे की सीट में बैठते हैं,
तो धक्के ज्यादा लगते हैं ।

जैसे जैसे हम,
आगे की सीट में जाते हैं,
तो धक्के कम लगते हैं ।

ड्राइवर और हमारी सीट में
अंतर ज़्यादा, तो धक्के ज़्यादा ।

ड्राइवर और हमारी सीट में
अंतर कम, तो धक्के कम ।

हमारे जीवन रूपी गाड़ी के
ड्राइवर / सारथी, भगवान हैं ।

भगवान से अंतर ज़्यादा,
तो धक्के ज़्यादा,

भगवान से अंतर कम,
तो धक्के कम ।


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इंसान और भगवान

एक बार एक गरीब किसान एक अमीर साहूकार के पास आया, और उससे बोला कि आप अपना एक खेत एक साल के लिए मुझे उधार दे दीजिये। मैं उसमें मेहनत से काम करुँगा, और अपने खाने के लिए अन्न उगाऊंगा।  साहूकार बहुत ही दयालु व्यक्ति था। उसने किसान को अपना एक खेत दे दिया, और उसकी मदद के लिए 5 व्यक्ति भी दिए।

साहूकार ने किसान से कहा कि मैं तुम्हारी सहायता के लिए ये 5 व्यक्ति दे रहा हूँ, तुम इनकी सहायता लेकर खेती करोगे तो तुम्हे खेती करने में आसानी होगी।

साहूकार की बात सुनकर किसान उन 5 लोगों को अपने साथ लेकर चला गया, और उन्हें ले जाकर खेत पर काम पर लगा दिया।

किसान ने सोचा कि ये 5 लोग खेत में काम कर तो रहे हैं, फिर मैं क्यों करू? अब तो किसान दिन रात बस सपने ही देखता रहता, कि खेत में जो अन्न उगेगा उससे क्या क्या करेगा, और उधर वे पाँचो व्यक्ति अपनी मर्जी से खेत में काम करते। जब मन करता फसल को पानी देते, और अगर उनका मन नहीं करता, तो कई दिनों तक फसल सुखी खड़ी रहती।

जब फसल काटने का समय आया, तो किसान ने देखा कि खेत में खड़ी फसल बहुत ही ख़राब है, जितनी लागत उसने खेत में पानी और खाद डालने में लगा दी खेत में उतनी फसल भी खेत में नहीं उगी। किसान यह देखकर बहुत दुखी हुआ।

एक साल बाद साहूकार अपना खेत किसान से वापिस माँगने आया, तब किसान उसके सामने रोने लगा और बोला आपने मुझे जो 5 व्यक्ति दिए थे मैं उनसे सही तरीके से काम नहीं करवा पाया और मेरी सारी फसल बर्बाद हो गयी। आप मुझे एक साल का समय और दे दीजिये मैं इस बार अच्छे से काम करूँगा और आपका खेत आपको लौटा दूँगा।

किसान की बात सुनकर साहूकार ने कहा- बेटा यह मौका बार बार नहीं मिलता, मैं अब तुम्हें अपना खेत नहीं दे सकता। यह कहकर साहूकार वहाँ से चला गया, और किसान रोता ही रह गया।

दोस्तों अब आप यहाँ ध्यान दीजिये|

वह दयालु साहूकार भगवान” हैं
गरीब किसान हम सभी व्यक्ति” हैं
साहूकार से किसान ने जो खेत उधार लिया था, वह हमारा शरीर” है|
साहूकार ने किसान की मदद के लिए जो पांच किसान दिए थे, वो है हमारी पाँचो इन्द्रियां आँख, कान, नाक, जीभ और मन” है|

भगवान ने हमें यह शरीर अच्छे कर्मो को करने के लिए दिया है, और इसके लिए उन्होंने हमें 5 इन्द्रियां “आँख, कान, नाक, जीभ और मन” दी है। इन इन्द्रियों को अपने वश में रखकर ही हम अच्छे काम कर सकते हैं ताकि जब भगवान हमसे अपना दिया शरीर वापिस मांगने आये तो हमें रोना ना आये।

इस ज्ञान को अपने जीवन में अपनायें ।

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अपनों की कीमत

एक छात्र पढ़ाई पूरी करने के बाद एक बड़ी कंपनी में नौकरी पाने की चाह में इंटरव्यू देने के लिए पहुंचा| छात्र ने बड़ी आसानी से पहला इंटरव्यू पास कर लिया| अब फाइनल इंटरव्यू कंपनी के डायरेक्टर को लेना और डायरेक्टर को ही तय करना था कि उस छात्र को नौकरी पर रखा जाए या नहीं |

डायरेक्टर ने छात्र का सीवी (curricular vitae) देखा और पाया कि पढ़ाई के साथ- साथ यह छात्र extra curricular activities में भी हमेशा अव्वल रहा|

डायरेक्टर- “क्या तुम्हें पढ़ाई के दौरान कभी छात्रवृत्ति (scholarship) मिली”

छात्र- “जी नहीं” डायरेक्टर- “इसका मतलब स्कूल-कॉलेज की फीस तुम्हारे पिता अदा करते थे..”

छात्र- “जी हाँ , श्रीमान ।डायरेक्टर- “तुम्हारे पिताजी क्या काम करते है?”

छात्र- “जी वो लोगों के कपड़े धोते हैं यह सुनकर कंपनी के डायरेक्टर ने कहा- “ज़रा अपने हाथ तो दिखाना| छात्र के हाथ रेशम की तरह मुलायम और नाज़ुक थे| ”

डायरेक्टर- “क्या तुमने कभी कपड़े धोने में अपने पिताजी की मदद की| ”

छात्र- “जी नहीं, मेरे पिता हमेशा यही चाहते थे कि मैं पढ़ाई करूं और ज़्यादा से ज़्यादा किताबें पढ़ूं|हां , एक बात और, मेरे पिता बड़ी तेजी से कपड़े धोते हैं| ”

डायरेक्टर- “क्या मैं तुम्हें एक काम कह सकता हूं| ”

छात्र- “जी, आदेश कीजिए| ”

डायरेक्टर- “आज घर वापस जाने के बाद अपने पिताजी के हाथ धोना| फिर कल सुबह मुझसे आकर मिलना| छात्र यह सुनकर प्रसन्न हो गया| उसे लगा कि अब नौकरी मिलना तो पक्का है, तभी तो डायरेक्टर ने कल फिर बुलाया है|”

छात्र ने घर आकर खुशी-खुशी अपने पिता को ये सारी बातें बताईं और अपने हाथ दिखाने को कहा| पिता को थोड़ी हैरानी हुई| लेकिन फिर भी उसने बेटे की इच्छा का मान करते हुए अपने दोनों हाथ उसके हाथों में दे दिए| छात्र ने पिता के हाथों को धीरे-धीरे धोना शुरू किया। कुछ देर में ही हाथ धोने के साथ ही उसकी आंखों से आंसू भी झर-झर बहने लगे| पिता के हाथ रेगमाल (emery paper) की तरह सख्त और जगह-जगह से कटे हुए थे| यहां तक कि जब भी वह कटे के निशानों पर पानी डालता, चुभन का अहसास पिता के चेहरे पर साफ़ झलक जाता था|

छात्र को ज़िंदगी में पहली बार एहसास हुआ कि ये वही हाथ हैं जो रोज़ लोगों के कपड़े धो-धोकर उसके लिए अच्छे खाने, कपड़ों और स्कूल की फीस का इंतज़ाम करते थे| पिता के हाथ का हर छाला सबूत था उसके एकेडैमिक कैरियर की एक-एक कामयाबी का| पिता के हाथ धोने के बाद छात्र को पता ही नहीं चला कि उसने उस दिन के बचे हुए सारे कपड़े भी एक-एक कर धो डाले| उसके पिता रोकते ही रह गए , लेकिन छात्र अपनी धुन में कपड़े धोता चला गया| उस रात बाप- बेटे ने काफ़ी देर तक बातें कीं|

अगली सुबह छात्र फिर नौकरी के लिए कंपनी के डायरेक्टर के ऑफिस में था| डायरेक्टर का सामना करते हुए छात्र की आंखें गीली थीं|

डायरेक्टर – “तो फिर कैसा रहा कल घर पर ? क्या तुम अपना अनुभव मेरे साथ शेयर करना पसंद करोगे| ”
छात्र – “जी हाँ , श्रीमान कल मैंने जिंदगी का एक वास्तविक अनुभव सीखा| ”
नंबर एक – “मैंने सीखा कि सराहना क्या होती है| मेरे पिता न होते तो मैं पढ़ाई में इतनी आगे नहीं आ सकता था| ”
नंबर दो – “पिता की मदद करने से मुझे पता चला कि किसी काम को करना कितना सख्त और मुश्किल होता है| ”
नंबर तीन -” मैंने रिश्तों की अहमियत पहली बार इतनी शिद्दत के साथ महसूस की|”

डायरेक्टर- “यही सब है जो मैं अपने मैनेजर में देखना चाहता हूं| मैं यह नौकरी केवल उसे देना चाहता हूं जो दूसरों की मदद की कद्र करे, ऐसा व्यक्ति जो काम किए जाने के दौरान दूसरों की तकलीफ भी महसूस करे| ऐसा शख्स जिसने सिर्फ पैसे को ही जीवन का ध्येय न बना रखा हो| मुबारक हो, तुम इस नौकरी के पूरे हक़दार हो|”

आप अपने बच्चों को बड़ा मकान दें, बढ़िया खाना दें, बड़ा टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब कुछ दें| लेकिन साथ ही अपने बच्चों को यह अनुभव भी हासिल करने दें कि उन्हें पता चले कि घास काटते हुए कैसा लगता है ? 

उन्हें भी अपने हाथों से ये काम करने दें| खाने के बाद कभी बर्तनों को धोने का अनुभव भी अपने साथ घर के सब बच्चों को मिलकर करने दें| ऐसा इसलिए नहीं कि आप मेड पर पैसा खर्च नहीं कर सकते, बल्कि इसलिए कि आप अपने बच्चों से सही प्यार करते हैं| आप उन्हें समझाते हैं कि पिता कितने भी अमीर क्यों न हो, एक दिन उनके बाल सफेद होने ही हैं| 

सबसे अहम हैं आप के बच्चे किसी काम को करने की कोशिश की कद्र करना सीखें| एक दूसरे का हाथ बंटाते हुए काम करने का जज्ब़ा अपने अंदर लाएं| यही है सबसे बड़ी सीख| 

धन्यवाद!

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हमारे निर्णय

हमारे निर्णय  – सबसे कीमती चीज

एक जाने-माने स्पीकर ने हाथ में पांच सौ का नोट लहराते हुए अपनी सेमीनार शुरू की. हाल में बैठे सैकड़ों लोगों से उसने पूछा ,” ये पांच सौ का नोट कौन लेना चाहता है?” हाथ उठना शुरू हो गए.

फिर उसने कहा ,” मैं इस नोट को आपमें से किसी एक को दूंगा पर  उससे पहले मुझे ये कर लेने दीजिये .” और उसने नोट को अपनी मुट्ठी में चिमोड़ना शुरू कर दिया. और  फिर उसने पूछा,” कौन है जो अब भी यह नोट लेना चाहता है?” अभी भी लोगों के हाथ उठने शुरू हो गए.

“अच्छा” उसने कहा,” अगर मैं ये कर दूं ? ” और उसने नोट को नीचे गिराकर पैरों से कुचलना शुरू कर दिया. उसने नोट उठाई , वह बिल्कुल चिमुड़ी और गन्दी हो गयी थी.

” क्या अभी भी कोई है जो इसे लेना चाहता है?”. और एक  बार  फिर हाथ उठने शुरू हो गए.

” दोस्तों  , आप लोगों ने आज एक बहुत महत्त्वपूर्ण पाठ सीखा है. मैंने इस नोट के साथ इतना कुछ किया पर फिर भी आप इसे लेना चाहते थे क्योंकि ये सब होने के बावजूद नोट की कीमत घटी नहीं,उसका मूल्य अभी भी 500 था.

जीवन में कई बार हम गिरते हैं, हारते हैं, हमारे लिए हुए निर्णय हमें मिटटी में मिला देते हैं. हमें ऐसा लगने लगता है कि हमारी कोई कीमत नहीं है. लेकिन आपके साथ चाहे जो हुआ हो या भविष्य में जो हो जाए , आपका मूल्य कम नहीं होता. आप स्पेशल हैं, इस बात को कभी मत भूलिए.

कभी भी बीते हुए कल की निराशा को आने वाले कल के सपनो को बर्बाद मत करने दीजिये. याद रखिये आपके पास जो सबसे कीमती चीज है, वो है आपका जीवन.”

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Sant Kabir ji

जीवन जीने की कला

एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वाभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था। उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं था।

एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता ?
उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला यह साड़ी कितने की दोगे ?
जुलाहे ने कहा – दस रुपये की।
तब लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला – मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे ? 
जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा पाँच रुपये।
लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग किये और दाम पूछा ?जुलाहे अब भी शांत था। उसने बताया – ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया। अंत में बोला – अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के ?
जुलाहे ने शांत भाव से कहा – बेटे ! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे।
अब लडके को शर्म आई और कहने लगा – मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी का दाम दे देता हूँ।
संत जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ ?
लडके का अभिमान जागा और वह कहने लगा कि ,मैं बहुत अमीर आदमी हूँ। तुम गरीब हो। मैं रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे ? और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।
संत जुलाहे मुस्कुराते हुए कहने लगे – तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा ? जुलाहे की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी।
लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आँखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया। जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा – बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो है उस में मेरा काम चल जाता। पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता।साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहाँ से लाओगे तुम ?तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।
सीख – संत की उँची सोच-समझ ने लडके का जीवन बदल दिया। 
Sant-Kabir

Sant-Kabir

ये कोई और नहीं ये सन्त थे कबीर दास जी

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भगवान के दोस्त

एक बच्चा गला देनेवाली सर्दी में नंगे पैर प्लास्टिक के तिरंगे बेच रहा था, लोग उसमे भी मोलभाव कर रहे थे।
एक सज्जन को उसके पैर देखकर बहुत दुःख हुआ, सज्जन ने बाज़ार से नया जूता ख़रीदा और उसे देते हुए कहा “बेटा लो, ये जूता पहन लो”. लड़के ने फ़ौरन जूते निकाले और पहन लिए, उसका चेहरा ख़ुशी से दमक उठा था. वो उस सज्जन की तरफ़ पल्टा और हाथ थाम कर पूछा – “आप भगवान हैं ?
उसने घबरा कर हाथ छुड़ाया और कानों को हाथ लगा कर कहा – “नहीं बेटा, नहीं. मैं भगवान नहीं”
लड़का फिर मुस्कराया और कहा
“तो फिर ज़रूर भगवान के दोस्त होंगे, क्योंकि मैंने कल रात भगवान से कहा था कि मुझे नऐ जूते देदें,”
वो सज्जन मुस्कुरा दिया और उसके माथे को प्यार से चूमकर अपने घर की तरफ़ चल पड़ा.
अब वो सज्जन भी जान चुके थे कि भगवान का दोस्त होना कोई मुश्किल काम नहीं..
Come out of your comfort zone, share your richness.